कहानी संग्रह >> रेप तथा अन्य कहानियाँ रेप तथा अन्य कहानियाँसरोजिनी साहू
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उड़ीसा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सरोजिनी साहू की स्त्रीवादी कहानियां...
औरतों के प्रति रेप से बड़ा शायद ही कोई अपराध हो। यह हर उस समाज के मुंह
पर करारा तमाचा है जो सभ्य होने का दावा करता है। पर क्या रेप केवल एक
अनजान आदमी के हाथों ही होता है? क्या रेप केवल शरीर का ही हो सकता है?
प्रस्तुत कहानियां महिलाओं से जुड़े कुछ ऐसे ही सवाल उठाती हैं और पाठकों
को उनके उत्तर तलाशने को मजबूर कर देती हैं।
उड़ीसा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सरोजिनी साहू एक स्त्रीवादी लेखिका के रूप में जानी जाती है। आप अंग्रेज़ी पत्रिका ‘इंडियन एज’ की सहायक संपादक हैं और ‘द न्यू इंडियन इक्सप्रेस’ में नियमित रूप से लिखती हैं। आपके उड़िया में आठ उपन्यास और दस कहानी-संग्रह छप चुके हैं।
उड़ीसा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सरोजिनी साहू एक स्त्रीवादी लेखिका के रूप में जानी जाती है। आप अंग्रेज़ी पत्रिका ‘इंडियन एज’ की सहायक संपादक हैं और ‘द न्यू इंडियन इक्सप्रेस’ में नियमित रूप से लिखती हैं। आपके उड़िया में आठ उपन्यास और दस कहानी-संग्रह छप चुके हैं।
अनुक्रम
रेप
ऐसी बात नहीं थी कि उन दोनों में छोटी-मोटी घरेलू बातों को लेकर झगड़े
नहीं होते थे। वे दोनों भी आपस में कुत्ते-बिल्ली की तरह झगड़ते थे। कभी
दुनियादारी की छोटी-छोटी बातों को लेकर, तो कभी बच्चों के लालन-पालन को
लेकर या फिर कभी-कभार अपने व्यक्तिगत वैचारिक मतभेदों को लेकर। परन्तु वे
दोनों ज़्यादा समय तक इन बातों को याद नहीं रखते थे। कुछ समय बाद, एकाध
घन्टे के भीतर-भीतर उनके सारे वैचारिक मतभेद दूर हो जाते थे और उनमें सुलह
हो जाती थी। उनके बाद वह दिन भी बाकी दिनों की तरह सामान्य हो जाता था। उन
झगड़े के दौरान जाने-अनजाने उनके मुँह से एक-दूसरे के लिए स्वार्थी,
घमण्डी, मनमौजी, बेईमान, कंजूस जैसे कई अनर्गल शब्द निकलते थे, मगर इन
शब्दों की यह बमबारी उन्हें आहत नहीं कर पाती थी। शाम की बातें सुबह
होते-होते उनके मन से हट जाया करती थीं।
पर आज का दिन दूसरे दिनों की तरह नहीं था। सुपर्णा को आश्चर्य हो रहा था, आखिरकार ऐसी घटनाएँ क्यों घटित हो जाती हैं? आज सुपर्णा की नींद पूरी नहीं हुई थी। सुबह-सुबह अधूरी नींद से उठकर तन्द्रा-अवस्था में वह बाथरूम गई। वहाँ से लौटकर वह रसोई-घर में गई। हीटर पर चाय चढ़ाकर अंगड़ाई लेते हुए अपने शरीर के आलस्य की जकड़न को दूर करने का यत्न करने लगी। फिर वह जयन्त को नींद से जगाते हुए चाय का प्याला देकर बाहर आँगन में जाकर बैठ गई। बिस्तर से उठकर ‘बेड-टी’ हाथ में लेकर पीछे-पीछे जयन्त भी आँगन में चले आए।
सुपर्णा ने चाय की चुस्ती लेते हुए कहा–‘‘मैंने आज एक बुरा सपना देखा।’’
जयन्त ने पूछा–‘‘कैसा सपना? मैंने भी आज एक बुरा सपना देखा।’’
सुपर्णा ने कहा–‘‘तुम जैसा सोच रहे हो, वैसा नहीं है।’’
इससे पहले कि जयन्त अपने सपने के बारे में बताते, सुपर्णा ने कहना शुरू किया–‘‘कल सपने में मैंने डॉक्टर त्रिपाठी को देखा। वह मेरे साथ था...मतलब उसके साथ, यानी हम दोनों में...’’
थूक निगलते-निगलते सुपर्णा ने कहना जारी रखा–‘‘कल रात को सपने में–ही फक्ड मी।’’
जैसे ही सुपर्णा के मुँह से ये शब्द निकले, उसने देखा, क्षण-भर के लिए जयन्त के चेहरे के भाव बदल गए। वह झुंझलाकर कहने लगे–‘‘मेरी भी ऐसी इच्छा है, तुम्हारे अलावा किसी दूसरी के साथ...’’ कहते-कहते जयन्त चुप हो गए।
वे बनावटी हँसी हँसने का अभिनय करने लगे। यद्यपि जयन्त के भींचे हुए होंठों पर बनावटी-मुस्कराहट की झलक अभी तक साफ दिखाई दे रही थी, परन्तु कुछ समय पूर्व जयन्त के विकृत चेहरे पर उभरी प्रतिशोध की भावना को सुपर्णा भुला नहीं पा रही थी। बाद में भले ही, जयन्त ने उसको ऊपरी मन में समझाने की कोशिश की कि उसने ऐसी कोई भी बात किसी गलत मतलब से नहीं कही थी। यह नहीं कहा जा सकता कि सपना देखने के बाद सुपर्णा के मन में अपराध-बोध उभर कर नहीं आया हो, पर जयन्त की बात सुनकर उसके मन को ठेस पहुँची थी। जयन्त को अपने सपने के बारे में बताने के पीछे उसका कोई गलत अभिप्राय नहीं था। चाय पीते-पीते गपशप करने के मूड में अचानक उसके मुँह से ये बातें निकल गई थीं। उसने इस बात का कभी भी यह अनुमान नहीं लगाया था कि जयन्त अनजाने में कही गई इन बातों को सुनकर इतने उत्तेजित हो जाएँगे। जयन्त को सफाई देने और समझाने-बुझाने के बावजूद भी उसके चेहरे पर उभर आई प्रतिशोध की रेखाओं की सुपर्णा भुलाए नहीं भूलती, लेकिन बात आगे न बढ़े, सोचकर वह अपनी दैनिक दिनचर्या के लिए वहाँ से उठकर घर के भीतर चली गई। कोई और दिन होता तो सुपर्णा अवश्य बहस करने लग जाती–‘तुम क्या सोचते हो? मुझे सपने देखने का भी अधिकार नहीं है?’
पर आज वह तर्क कैसे करती क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह जान गयी थी कि उसकी ज़िन्दगी ज़मीन के इस छोटे से टुकड़े पर बने एक छोटे से क्वार्टर में ही बंधी हुई है। अगर कोई उसे अभी कहता ‘उड़ जाओ’ तो भी वह वहाँ से उड़ने के लिए तैयार नहीं होगी। पिंजड़े के बाहर की दुनिया के बारे में सोचते ही वह मन-ही-मन भयभीत होने लगी। अगर कोई पूछता ‘‘अगले जन्म में तुम क्या बनना पसन्द करोगी?’’ उसका उत्तर होता, ‘मैं पंछी बनूँगी।’
सुपर्णा के मन में यह ख्याल कभी नहीं आया था कि वह हमेशा के लिए इस तरह चारदीवारी में कैद हो जाएगी। हरेक दिन दूसरे दिनों से अलग होगा और अट्ठाईस साल की उम्र तक उसने जैसा जीवन बिताया था, वैसा ही जीवन तीस साल की उम्र में उन्हीं दिनों की तरह बीतेगा। पति के लिए गर्म-गर्म रोटियाँ सेंको, लड़के के लिए राइम्स, इंजिन और मॉनिंग की स्पेलिंग्स याद करवाओ और लड़की की त्वचा, दाँत, बालों की सुरक्षा एवं सौन्दर्य के लिए अपनाए गए घरेलू नुस्खों का उपयोग करो। इन सभी बातों के बीच सुपर्णा यह भूल चुकी थी कि वह एक ऐसी लड़की थी जिसने धवलेश्वर मन्दिर में महानदी के किनारे सिगरेट के छल्ले उड़ाये थे। उसने कॉलेज के लड़कों की छींटाकशी की तनिक परवाह भी नहीं की थी। सुपर्णा वे बातें भी भूल गयी थी कि उसने एक नौजवान के साथ इस विषय पर ज़ोरदार बहस की थी–शायद उसका नाम कोई दास, अधिकारी या ऐसा की कुछ उपनाम था। उसने उस नौजवान को मुँहतोड़ जवाब दिया था, ‘‘तुम लोग औरतों के बारे में क्या सोचते हो? क्या उन्हें गाय, बकरी या भेड़ समझते हो? थोड़ा-सा धुआँ हम भी नहीं उड़ा सकते?’’ भले ही यह उसका दुस्साहस था या उसकी मनमौजी प्रवृत्ति। शादी के तीन साल बाद जयन्त के इस क्वार्टर में बँधकर नहीं रह पाती थी। इस छोटे-से शहर में वह छटपटा कर रह जाती थी और मायके जाने के बहाने कटक या भुवनेश्वर चली जाती थी।
‘‘जयन्त, मैं तुम्हारे सीमित संसार में नहीं रह सकूँगी। मुझे उड़ने के लिए आकाश का फैलाव चाहिए।’’
सुपर्णा भुवनेश्वर से लगातार पत्र लिखती रहती थी और जवाब न पाकर अन्त में वह कुण्ठित होकर जयन्त के पास लौट आती थी। नौकरी एक पराधीनता है, जानते हुए भी उसने एक बार निश्चय कर लिया था कि वह स्वतन्त्र-रूप से नौकरी करेगी। परन्तु उसी समय डॉक्टर ने सलाह दी, ‘‘यह तुम्हारा पहला इश्यू है। इस समय तुम्हें ज़्यादा यात्राएँ नहीं करनी चाहिए। कम-से-कम पाँच महीने तक फुल बेड रेस्ट करना तुम्हारे लिए ज़रूरी है।’’
इन पाँच महीनों के बेड-रेस्ट के दौरान सुपर्णा का जीवन पूरी तरह से बदल गया था। वह कई नई-नई अनुभूतियों के साथ-साथ तरह-तरह की मानसिक जड़ताओं की शिकार होती जा रही थी। बस, उसके बाद उसे यह याद भी नहीं रहा कि उसे केवल माँ ही नहीं, बल्कि एक पंछी बनकर खुले गगन में उड़ना भी था।
वह सोच रही थी उसे अपनी पीठ पर बच्चे बाँधकर बंजारिन हो जाना चाहिए था। जयन्त की नसबन्दी के बाद वह निश्चिंत संभोगों के साथ अपने बीते दिनों की यादों और दुश्चिंताओं को बेटे की हँसी में तथा बेटी की शरारतों में भूल गई थी। भूल गई थी वह सॉलबेलो व गार्शिया मार्क्वेज के सृजनात्मक लेखन को, सैम पित्रोदा की विज्ञान आधारित शिक्षा-नीति को और शबाना आज़मी की कलात्मक फिल्मों को। अब तो वह केवल इस बारे में निःसंकोच गप्पें लड़ाती थी, प्रधान बाबू के घर में एक पाव भर मटन में सात आदमी कैसे खाते हैं? मोहन्ती बाबू के क्वाटरों के झरोखे में वह कितनी बार देख चुकी थी, मोहन्ती बाबू अपनी पत्नी के सिर से जुएँ निकालते या प्रेशर कुकर साफ करते हैं? या फिर, शादी के समय वह अपने मायके से कितना सोना लाई और इस बीच और कितना सोना उसने खरीदा?
दूध बेचने वाली गाड़ी के हॉर्न से सुपर्णा अपने वर्तमान में लौट आई। वैसे उसको बर्तन माँजने में ज़्यादा-से-ज़्यादा पन्द्रह मिनट का समय लगता था। पर आज पता नहीं क्यों उसे बर्तन माँजते आधे घण्टे से ज़्यादा हो गया, फिर भी काम पूरा होता हुआ नज़र नहीं आ रहा था। सुपर्णा हाथ धोकर उठ खड़ी हुई और दूध के बर्तन और रुपए लेकर बेटे के हाथ में थमा दिए, फिर अपने बालों में कंघी फेरते हुए शीशे में अपने चेहरे को निहारने लगी कि वह ठीक-ठाक दिखाई दे रही है या अभी भी उदास-चित्त है? जैसे ही वह घर से बाहर निकली, मिल्क-वेन के ड्राइवर ने पूछा–‘‘क्या बात है मैडम, आज आप दूध लेने नहीं आई। तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ मगर उसने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल वह मुस्करा दी।
बड़ी मुश्किल से उसने आठ बजे तक नाश्ता बनाया। उस दिन जयन्त ने अपना नाश्ता इस तरह से किया मानों वह घोड़े पर ज़ीन कस कर आया हो। ब्रैड-स्लाइस सोफे में बैठकर, तो ऑमलेट आँगन में खड़े होकर और चाय चलते-चलते पीकर वह तेज़ी से घर से बाहर निकल गए। जाते-जाते स्कूटर पर किक मारते हुए कहने लगे, ‘‘मैं ऑफिस से दस बजे तक लौट आऊँगा, तुम तैयार रहना, डॉक्टर के पास चलना है ना?’’
इतना कहकर जयन्त सुपर्णा के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर ही वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद सुपर्णा घर के भीतर आ गई। वह भीतर ड्राइंगरूम में ब्रैड के बिखरे हुए टुकड़ों की तरफ देखने लगी। जयन्त अक्सर बच्चों के साथ टेलीवीज़न देखते हुए नाश्ता करते थे। अभी तक आज उससे बैडरूम में बिस्तर नहीं बदला गया था। उसने अभी तक सारे घर में झाडू तक नहीं लगाया था। फिल्टर कैंडल को साफ करने का काम अभी तक बचा हुआ था। न तो आज उससे अभी तक नल से पानी भर कर रखा गया था, न ही वह अभी तक दूध गर्म कर पाई थी। किसी भी हालत में आज उसे दस बजे से पहले-पहले कम-से-कम चावल-दाल तथा आलू-चोखा बना लेना चाहिए। नहीं तो, डॉक्टर के पास जाने में देर हो जाएगी और अगर डॉक्टर के पास चेक कराकर आने के बाद रसोई बनाती है, तो बच्चे स्कूल से आने के बाद बिना कुछ खाए ही सो जाएँगे। उसके सारे काम अभी तक बाकी पड़े थे। सुपर्णा समझ नहीं पा रही थी, वह कौन-सा काम पहले करे और कौन-सा काम बाद में करे? बैडरूम में जब वह चादर बदलने गई, तब उसे काफी थकान से चक्कर आने लगे। थोड़ा-सा आराम करने के लिए वह पलंग पर चित लेट गई। लेटे-लेटे वह सोचने लगी, काश ! उसने एक नौकरानी रख ली होती। लेकिन नौकरानी रखना कोई आसान काम नहीं था। कभी-कभी नौकरानी रखने से घर की शान्ति भंग हो जाती थी। पहले वाली नौकरानी को उसके यहाँ से काम छोड़े लगभग चार महीने ही बीते होंगे। इन चार महीनों के दौरान घर का नियमित कामकाज से जमी हुई चर्बी पिघल रही थी और सुपर्णा की फिगर बन रही थी।
सुपर्णा बच्चों की बढ़ती शरारतों से आजकल परेशान रहती थी। वह समझ नहीं पाती थी, उनको कैसे सँभाला जाए? तीन दिन पहले की बात थी, उसकी बच्ची ने डिस्टिल्ड वाटर के एम्पुल के काँच के छोटे टुकड़े को घर की नाली में से उठाकर खा लिया था। बहुत कोशिशों के बाद उसके मुँह से वह काँच का टुकड़ा तो निकाल दिया था, पर उसकी तेज़-धार से बच्ची की जीभ लहू-लुहान हो गई थी। कोई और काँच का टुकड़ा पेट में नहीं चला गया हो, इस सन्देह को दूर करने के लिए बाद में उसके पाखाने की जाँच भी करवानी पड़ी थी।
हर दिन की तरह आज भी दोनों बच्चे ड्राइंगरूम में झगड़ रहे थे। सुपर्णा को जाकर बीच-बचाव करना पड़ा था। दोनों को दूर-दूर बिठाकर उनको अलग-अलग खिलौने देकर वह रसोई-घर में लौट आई थी। वह सोच रही थी कि क्यों न पहले रसोई-घर का काम निपटा लिया जाए। रसोई-घर के भीतर जाकर उसने गैस ऑन किया, उसने देखा गैस धीरे-धीरे जल रही थी। उसे लग रहा था कि गैस जल्दी ही खत्म हो जाएगी। सुबह-सुबह आस-पड़ोस से भी गैस का कोई बन्दोबस्त आसानी से नहीं हो सकता था। जैसे-तैसे उसने धीमी आँच पर ही खाना तैयार किया।
जैसे ही वह रसोई-घर से काम करके बाहर निकली, वैसे ही ठीक दस बजे जयन्त घर पहुँच गए। परन्तु सुपर्णा के घर का काम अभी तक ख़त्म नहीं हुआ था। उसने घर में झाडू-पोछा लगा लिया था, कपड़े भिगो दिए थे, बच्चों को स्नान करवा दिया था, फिर भी कई छोटे-मोटे काम बाकी रह गए थे जैसे खिड़की-दरवाज़े बन्द करना, बच्चों को शर्ट-पैंट और जूते पहनाना, पाउडर लगाना, ताले और चाबी ढूँढ़ना इत्यादि। सारा काम ख़त्म करते-करते आधे-घन्टे से ज़्यादा का समय बीत गया। देर होती देख जयन्त ड्राइंगरूम में बैठे-बैठे बच्चों पर अपना गुस्सा उतारने लगे। देखते-देखते उनकी चिड़चिड़ाहट इतनी बढ़ गयी थी कि साड़ी पहनने के बाद सुपर्णा को बिन्दी और पाउडर लगाने का समय नहीं मिला। बाहर निकलने के समय चाभी नहीं मिल रही थी, पर गेट के सामने खड़े जयन्त की बेचैनी को देखते हुए उसने कहा था, ‘‘आ रही हूँ बस।’’ बहुत दिन हुए घर से बाहर कहीं नहीं निकल पाती थी वह, इसलिए उसकी चप्पलों पर धूल की मोटी परत जमी हुई थी। जूते साफ़ करने वाले ब्रश या कपड़ा सही जगह पर नहीं मिलने के कारण, उसने अपने पहनने वाली चप्पलों को धीरे से जमीं पर पटका, फिर उन्हें पहनकर तेजी से घर से बाहर निकल गई। डॉक्टर के पास पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज चुके थे। जयन्त कहने लगा, ‘‘तुम तो जानती हो, इस डॉक्टर के क्लीनिक में बहुत भीड़ रहती है इस समय, इसलिए तो मैं कह रहा था कि ठीक समय पर तैयार रहना, पर तुम तो कभी समय पर तैयार हो ही नहीं सकतीं।’’
‘क्यों, तुम नहीं जानते, घर के कितने काम होते हैं? जब सब काम निपटेंगे तभी तो घर से बाहर निकल पाऊँगी।’’
बेटे को लेकर बाहर जाते हुए जयन्त ने कहा, ‘‘अच्छा, अब जाओ, तुम बच्ची को भीतर ले जाकर चेकअप करवाओ और मैं बाहर बेटे को लेकर तुम्हारा इन्तज़ार करता हूँ।’’
पर आज का दिन दूसरे दिनों की तरह नहीं था। सुपर्णा को आश्चर्य हो रहा था, आखिरकार ऐसी घटनाएँ क्यों घटित हो जाती हैं? आज सुपर्णा की नींद पूरी नहीं हुई थी। सुबह-सुबह अधूरी नींद से उठकर तन्द्रा-अवस्था में वह बाथरूम गई। वहाँ से लौटकर वह रसोई-घर में गई। हीटर पर चाय चढ़ाकर अंगड़ाई लेते हुए अपने शरीर के आलस्य की जकड़न को दूर करने का यत्न करने लगी। फिर वह जयन्त को नींद से जगाते हुए चाय का प्याला देकर बाहर आँगन में जाकर बैठ गई। बिस्तर से उठकर ‘बेड-टी’ हाथ में लेकर पीछे-पीछे जयन्त भी आँगन में चले आए।
सुपर्णा ने चाय की चुस्ती लेते हुए कहा–‘‘मैंने आज एक बुरा सपना देखा।’’
जयन्त ने पूछा–‘‘कैसा सपना? मैंने भी आज एक बुरा सपना देखा।’’
सुपर्णा ने कहा–‘‘तुम जैसा सोच रहे हो, वैसा नहीं है।’’
इससे पहले कि जयन्त अपने सपने के बारे में बताते, सुपर्णा ने कहना शुरू किया–‘‘कल सपने में मैंने डॉक्टर त्रिपाठी को देखा। वह मेरे साथ था...मतलब उसके साथ, यानी हम दोनों में...’’
थूक निगलते-निगलते सुपर्णा ने कहना जारी रखा–‘‘कल रात को सपने में–ही फक्ड मी।’’
जैसे ही सुपर्णा के मुँह से ये शब्द निकले, उसने देखा, क्षण-भर के लिए जयन्त के चेहरे के भाव बदल गए। वह झुंझलाकर कहने लगे–‘‘मेरी भी ऐसी इच्छा है, तुम्हारे अलावा किसी दूसरी के साथ...’’ कहते-कहते जयन्त चुप हो गए।
वे बनावटी हँसी हँसने का अभिनय करने लगे। यद्यपि जयन्त के भींचे हुए होंठों पर बनावटी-मुस्कराहट की झलक अभी तक साफ दिखाई दे रही थी, परन्तु कुछ समय पूर्व जयन्त के विकृत चेहरे पर उभरी प्रतिशोध की भावना को सुपर्णा भुला नहीं पा रही थी। बाद में भले ही, जयन्त ने उसको ऊपरी मन में समझाने की कोशिश की कि उसने ऐसी कोई भी बात किसी गलत मतलब से नहीं कही थी। यह नहीं कहा जा सकता कि सपना देखने के बाद सुपर्णा के मन में अपराध-बोध उभर कर नहीं आया हो, पर जयन्त की बात सुनकर उसके मन को ठेस पहुँची थी। जयन्त को अपने सपने के बारे में बताने के पीछे उसका कोई गलत अभिप्राय नहीं था। चाय पीते-पीते गपशप करने के मूड में अचानक उसके मुँह से ये बातें निकल गई थीं। उसने इस बात का कभी भी यह अनुमान नहीं लगाया था कि जयन्त अनजाने में कही गई इन बातों को सुनकर इतने उत्तेजित हो जाएँगे। जयन्त को सफाई देने और समझाने-बुझाने के बावजूद भी उसके चेहरे पर उभर आई प्रतिशोध की रेखाओं की सुपर्णा भुलाए नहीं भूलती, लेकिन बात आगे न बढ़े, सोचकर वह अपनी दैनिक दिनचर्या के लिए वहाँ से उठकर घर के भीतर चली गई। कोई और दिन होता तो सुपर्णा अवश्य बहस करने लग जाती–‘तुम क्या सोचते हो? मुझे सपने देखने का भी अधिकार नहीं है?’
पर आज वह तर्क कैसे करती क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह जान गयी थी कि उसकी ज़िन्दगी ज़मीन के इस छोटे से टुकड़े पर बने एक छोटे से क्वार्टर में ही बंधी हुई है। अगर कोई उसे अभी कहता ‘उड़ जाओ’ तो भी वह वहाँ से उड़ने के लिए तैयार नहीं होगी। पिंजड़े के बाहर की दुनिया के बारे में सोचते ही वह मन-ही-मन भयभीत होने लगी। अगर कोई पूछता ‘‘अगले जन्म में तुम क्या बनना पसन्द करोगी?’’ उसका उत्तर होता, ‘मैं पंछी बनूँगी।’
सुपर्णा के मन में यह ख्याल कभी नहीं आया था कि वह हमेशा के लिए इस तरह चारदीवारी में कैद हो जाएगी। हरेक दिन दूसरे दिनों से अलग होगा और अट्ठाईस साल की उम्र तक उसने जैसा जीवन बिताया था, वैसा ही जीवन तीस साल की उम्र में उन्हीं दिनों की तरह बीतेगा। पति के लिए गर्म-गर्म रोटियाँ सेंको, लड़के के लिए राइम्स, इंजिन और मॉनिंग की स्पेलिंग्स याद करवाओ और लड़की की त्वचा, दाँत, बालों की सुरक्षा एवं सौन्दर्य के लिए अपनाए गए घरेलू नुस्खों का उपयोग करो। इन सभी बातों के बीच सुपर्णा यह भूल चुकी थी कि वह एक ऐसी लड़की थी जिसने धवलेश्वर मन्दिर में महानदी के किनारे सिगरेट के छल्ले उड़ाये थे। उसने कॉलेज के लड़कों की छींटाकशी की तनिक परवाह भी नहीं की थी। सुपर्णा वे बातें भी भूल गयी थी कि उसने एक नौजवान के साथ इस विषय पर ज़ोरदार बहस की थी–शायद उसका नाम कोई दास, अधिकारी या ऐसा की कुछ उपनाम था। उसने उस नौजवान को मुँहतोड़ जवाब दिया था, ‘‘तुम लोग औरतों के बारे में क्या सोचते हो? क्या उन्हें गाय, बकरी या भेड़ समझते हो? थोड़ा-सा धुआँ हम भी नहीं उड़ा सकते?’’ भले ही यह उसका दुस्साहस था या उसकी मनमौजी प्रवृत्ति। शादी के तीन साल बाद जयन्त के इस क्वार्टर में बँधकर नहीं रह पाती थी। इस छोटे-से शहर में वह छटपटा कर रह जाती थी और मायके जाने के बहाने कटक या भुवनेश्वर चली जाती थी।
‘‘जयन्त, मैं तुम्हारे सीमित संसार में नहीं रह सकूँगी। मुझे उड़ने के लिए आकाश का फैलाव चाहिए।’’
सुपर्णा भुवनेश्वर से लगातार पत्र लिखती रहती थी और जवाब न पाकर अन्त में वह कुण्ठित होकर जयन्त के पास लौट आती थी। नौकरी एक पराधीनता है, जानते हुए भी उसने एक बार निश्चय कर लिया था कि वह स्वतन्त्र-रूप से नौकरी करेगी। परन्तु उसी समय डॉक्टर ने सलाह दी, ‘‘यह तुम्हारा पहला इश्यू है। इस समय तुम्हें ज़्यादा यात्राएँ नहीं करनी चाहिए। कम-से-कम पाँच महीने तक फुल बेड रेस्ट करना तुम्हारे लिए ज़रूरी है।’’
इन पाँच महीनों के बेड-रेस्ट के दौरान सुपर्णा का जीवन पूरी तरह से बदल गया था। वह कई नई-नई अनुभूतियों के साथ-साथ तरह-तरह की मानसिक जड़ताओं की शिकार होती जा रही थी। बस, उसके बाद उसे यह याद भी नहीं रहा कि उसे केवल माँ ही नहीं, बल्कि एक पंछी बनकर खुले गगन में उड़ना भी था।
वह सोच रही थी उसे अपनी पीठ पर बच्चे बाँधकर बंजारिन हो जाना चाहिए था। जयन्त की नसबन्दी के बाद वह निश्चिंत संभोगों के साथ अपने बीते दिनों की यादों और दुश्चिंताओं को बेटे की हँसी में तथा बेटी की शरारतों में भूल गई थी। भूल गई थी वह सॉलबेलो व गार्शिया मार्क्वेज के सृजनात्मक लेखन को, सैम पित्रोदा की विज्ञान आधारित शिक्षा-नीति को और शबाना आज़मी की कलात्मक फिल्मों को। अब तो वह केवल इस बारे में निःसंकोच गप्पें लड़ाती थी, प्रधान बाबू के घर में एक पाव भर मटन में सात आदमी कैसे खाते हैं? मोहन्ती बाबू के क्वाटरों के झरोखे में वह कितनी बार देख चुकी थी, मोहन्ती बाबू अपनी पत्नी के सिर से जुएँ निकालते या प्रेशर कुकर साफ करते हैं? या फिर, शादी के समय वह अपने मायके से कितना सोना लाई और इस बीच और कितना सोना उसने खरीदा?
दूध बेचने वाली गाड़ी के हॉर्न से सुपर्णा अपने वर्तमान में लौट आई। वैसे उसको बर्तन माँजने में ज़्यादा-से-ज़्यादा पन्द्रह मिनट का समय लगता था। पर आज पता नहीं क्यों उसे बर्तन माँजते आधे घण्टे से ज़्यादा हो गया, फिर भी काम पूरा होता हुआ नज़र नहीं आ रहा था। सुपर्णा हाथ धोकर उठ खड़ी हुई और दूध के बर्तन और रुपए लेकर बेटे के हाथ में थमा दिए, फिर अपने बालों में कंघी फेरते हुए शीशे में अपने चेहरे को निहारने लगी कि वह ठीक-ठाक दिखाई दे रही है या अभी भी उदास-चित्त है? जैसे ही वह घर से बाहर निकली, मिल्क-वेन के ड्राइवर ने पूछा–‘‘क्या बात है मैडम, आज आप दूध लेने नहीं आई। तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ मगर उसने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल वह मुस्करा दी।
बड़ी मुश्किल से उसने आठ बजे तक नाश्ता बनाया। उस दिन जयन्त ने अपना नाश्ता इस तरह से किया मानों वह घोड़े पर ज़ीन कस कर आया हो। ब्रैड-स्लाइस सोफे में बैठकर, तो ऑमलेट आँगन में खड़े होकर और चाय चलते-चलते पीकर वह तेज़ी से घर से बाहर निकल गए। जाते-जाते स्कूटर पर किक मारते हुए कहने लगे, ‘‘मैं ऑफिस से दस बजे तक लौट आऊँगा, तुम तैयार रहना, डॉक्टर के पास चलना है ना?’’
इतना कहकर जयन्त सुपर्णा के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर ही वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद सुपर्णा घर के भीतर आ गई। वह भीतर ड्राइंगरूम में ब्रैड के बिखरे हुए टुकड़ों की तरफ देखने लगी। जयन्त अक्सर बच्चों के साथ टेलीवीज़न देखते हुए नाश्ता करते थे। अभी तक आज उससे बैडरूम में बिस्तर नहीं बदला गया था। उसने अभी तक सारे घर में झाडू तक नहीं लगाया था। फिल्टर कैंडल को साफ करने का काम अभी तक बचा हुआ था। न तो आज उससे अभी तक नल से पानी भर कर रखा गया था, न ही वह अभी तक दूध गर्म कर पाई थी। किसी भी हालत में आज उसे दस बजे से पहले-पहले कम-से-कम चावल-दाल तथा आलू-चोखा बना लेना चाहिए। नहीं तो, डॉक्टर के पास जाने में देर हो जाएगी और अगर डॉक्टर के पास चेक कराकर आने के बाद रसोई बनाती है, तो बच्चे स्कूल से आने के बाद बिना कुछ खाए ही सो जाएँगे। उसके सारे काम अभी तक बाकी पड़े थे। सुपर्णा समझ नहीं पा रही थी, वह कौन-सा काम पहले करे और कौन-सा काम बाद में करे? बैडरूम में जब वह चादर बदलने गई, तब उसे काफी थकान से चक्कर आने लगे। थोड़ा-सा आराम करने के लिए वह पलंग पर चित लेट गई। लेटे-लेटे वह सोचने लगी, काश ! उसने एक नौकरानी रख ली होती। लेकिन नौकरानी रखना कोई आसान काम नहीं था। कभी-कभी नौकरानी रखने से घर की शान्ति भंग हो जाती थी। पहले वाली नौकरानी को उसके यहाँ से काम छोड़े लगभग चार महीने ही बीते होंगे। इन चार महीनों के दौरान घर का नियमित कामकाज से जमी हुई चर्बी पिघल रही थी और सुपर्णा की फिगर बन रही थी।
सुपर्णा बच्चों की बढ़ती शरारतों से आजकल परेशान रहती थी। वह समझ नहीं पाती थी, उनको कैसे सँभाला जाए? तीन दिन पहले की बात थी, उसकी बच्ची ने डिस्टिल्ड वाटर के एम्पुल के काँच के छोटे टुकड़े को घर की नाली में से उठाकर खा लिया था। बहुत कोशिशों के बाद उसके मुँह से वह काँच का टुकड़ा तो निकाल दिया था, पर उसकी तेज़-धार से बच्ची की जीभ लहू-लुहान हो गई थी। कोई और काँच का टुकड़ा पेट में नहीं चला गया हो, इस सन्देह को दूर करने के लिए बाद में उसके पाखाने की जाँच भी करवानी पड़ी थी।
हर दिन की तरह आज भी दोनों बच्चे ड्राइंगरूम में झगड़ रहे थे। सुपर्णा को जाकर बीच-बचाव करना पड़ा था। दोनों को दूर-दूर बिठाकर उनको अलग-अलग खिलौने देकर वह रसोई-घर में लौट आई थी। वह सोच रही थी कि क्यों न पहले रसोई-घर का काम निपटा लिया जाए। रसोई-घर के भीतर जाकर उसने गैस ऑन किया, उसने देखा गैस धीरे-धीरे जल रही थी। उसे लग रहा था कि गैस जल्दी ही खत्म हो जाएगी। सुबह-सुबह आस-पड़ोस से भी गैस का कोई बन्दोबस्त आसानी से नहीं हो सकता था। जैसे-तैसे उसने धीमी आँच पर ही खाना तैयार किया।
जैसे ही वह रसोई-घर से काम करके बाहर निकली, वैसे ही ठीक दस बजे जयन्त घर पहुँच गए। परन्तु सुपर्णा के घर का काम अभी तक ख़त्म नहीं हुआ था। उसने घर में झाडू-पोछा लगा लिया था, कपड़े भिगो दिए थे, बच्चों को स्नान करवा दिया था, फिर भी कई छोटे-मोटे काम बाकी रह गए थे जैसे खिड़की-दरवाज़े बन्द करना, बच्चों को शर्ट-पैंट और जूते पहनाना, पाउडर लगाना, ताले और चाबी ढूँढ़ना इत्यादि। सारा काम ख़त्म करते-करते आधे-घन्टे से ज़्यादा का समय बीत गया। देर होती देख जयन्त ड्राइंगरूम में बैठे-बैठे बच्चों पर अपना गुस्सा उतारने लगे। देखते-देखते उनकी चिड़चिड़ाहट इतनी बढ़ गयी थी कि साड़ी पहनने के बाद सुपर्णा को बिन्दी और पाउडर लगाने का समय नहीं मिला। बाहर निकलने के समय चाभी नहीं मिल रही थी, पर गेट के सामने खड़े जयन्त की बेचैनी को देखते हुए उसने कहा था, ‘‘आ रही हूँ बस।’’ बहुत दिन हुए घर से बाहर कहीं नहीं निकल पाती थी वह, इसलिए उसकी चप्पलों पर धूल की मोटी परत जमी हुई थी। जूते साफ़ करने वाले ब्रश या कपड़ा सही जगह पर नहीं मिलने के कारण, उसने अपने पहनने वाली चप्पलों को धीरे से जमीं पर पटका, फिर उन्हें पहनकर तेजी से घर से बाहर निकल गई। डॉक्टर के पास पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज चुके थे। जयन्त कहने लगा, ‘‘तुम तो जानती हो, इस डॉक्टर के क्लीनिक में बहुत भीड़ रहती है इस समय, इसलिए तो मैं कह रहा था कि ठीक समय पर तैयार रहना, पर तुम तो कभी समय पर तैयार हो ही नहीं सकतीं।’’
‘क्यों, तुम नहीं जानते, घर के कितने काम होते हैं? जब सब काम निपटेंगे तभी तो घर से बाहर निकल पाऊँगी।’’
बेटे को लेकर बाहर जाते हुए जयन्त ने कहा, ‘‘अच्छा, अब जाओ, तुम बच्ची को भीतर ले जाकर चेकअप करवाओ और मैं बाहर बेटे को लेकर तुम्हारा इन्तज़ार करता हूँ।’’
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